Politics : केंद्र की मोदी सरकार ने, जो सालों से जाति जनगणना से कतराती रही, अचानक इस मुद्दे पर यू-टर्न ले लिया है. इतिहास में पहली बार सरकरा घर-घर जाकर लोगों की जाति पूछेगी. लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पिच पर वोट बटोरती रही, अब उसने जातिगत जनगणना को हरी झंडी दे दी है? क्या ये विपक्ष के दबाव का नतीजा है या बिहार चुनाव में हारने का डर? इस खबर में जानते हैं मोदी सरकार के इस फैसले के पीछे की पूरी कहानी.
भारत में आखिरी बार 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्ण जाति जनगणना हुई थी. आजादी के बाद, नेहरू सरकार ने इसे सामाजिक एकता के लिए खतरा मानकर बंद कर दिया. लेकिन 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों ने जाति की सियासत को फिर से जिंदा कर दिया. बीजेपी, जो हमेशा से हिंदुत्व और धार्मिक एकता की बात करती रही, ने इस मुद्दे पर शुरू में ठंडा रवैया अपनाया. 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया, लेकिन इसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं हुए. मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के बाद भी इसे टालने की कोशिश की. 2021 में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में साफ कहा कि सरकार का जाति जनगणना का कोई इरादा नहीं है. लेकिन फिर अचानक इस मुद्दे पर सरकार ने यूटर्न कैसे लिया.
दरअसल, पिछले कुछ सालों में विपक्ष ने जाति जनगणना को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया. कांग्रेस के राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का मंत्र बनाकर हर मंच पर उठाया. अखिलेश यादव की पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक यानी PDA की रणनीति ने 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बीजेपी को बड़ा झटका दिया, जहां एनडीए की सीटें 64 से घटकर 36 रह गईं. बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने 2023 में जातिगत सर्वे कराकर सियासी तापमान बढ़ा दिया. जेडीयू और एलजेपी जैसे एनडीए सहयोगी भी इस मांग में शामिल हो गए. विपक्ष का ये दबाव और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव की नजदीकी ने बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया.
आरएसएस ने भी बदला अपना रुख
बीजेपी के वैचारिक गुरु आरएसएस ने भी इस मुद्दे पर अपना रुख बदला. सितंबर 2024 में आरएसएस के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि जाति जनगणना सामाजिक कल्याण के लिए जरूरी हो सकती है, बशर्ते इसका दुरुपयोग न हो. ये बयान बीजेपी के लिए गेम-चेंजर साबित हुआ. माना जा रहा है कि पीएम मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की हालिया मुलाकात के बाद ये फैसला लिया गया. बीजेपी को डर है कि अगर जाति जनगणना नहीं हुई, तो विपक्ष इसे हिंदू एकता के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. खासकर ओबीसी और दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा, जो 2014 और 2019 में बीजेपी के साथ था, अब विपक्ष की ओर खिसक रहा है.
बिहार चुनाव से पहले बदला मोदी सरकार ने अपना रुख
2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव इस फैसले की टाइमिंग को समझने की कुंजी है. बिहार में नीतीश कुमार ने पहले ही जातिगत सर्वे कराकर बीजेपी पर दबाव बना दिया था. तेजस्वी यादव इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की तैयारी में थे. बीजेपी को डर था कि अगर वो इस मांग को खारिज करती, तो ओबीसी और दलित वोटरों का बड़ा हिस्सा खिसक सकता था. इसलिए, सरकार ने जातिगत जनगणना का ऐलान करके विपक्ष के इस मुद्दे को हाइजैक कर लिया.
लेकिन क्या ये फैसला बीजेपी के लिए जोखिम भरा हो सकता है? जाति जनगणना से सामाजिक तनाव बढ़ने का खतरा है. अगर आंकड़े सामने आए, तो आरक्षण की 50% सीमा हटाने की मांग तेज हो सकती है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है. इससे बीजेपी की हिंदुत्व की पिच कमजोर हो सकती है, क्योंकि वोटर फिर से जातिगत आधार पर बंट सकते हैं. दूसरी ओर, सही नीतियों के साथ ये फैसला सामाजिक न्याय को मजबूत कर सकता है. इसलिए मोदी सरकार का ये यू-टर्न सियासत का मास्टरस्ट्रोक है या मजबूरी का नतीजा? ये तो वक्त ही बताएगा. लेकिन इतना तय है कि जाति जनगणना आने वाले समय में भारत की राजनीति की दशा और दिशा बदल सकती है.
